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एम्एसीएस
भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना वर्ष 1857 में हुई। विश्वविद्यालयी शिक्षा के तीन मुख्य उद्देश्य निर्धारित किए गए थे:
- शिक्षा का व्यापक प्रसार कर जनसामान्य तक पहुंचाना,
- वैज्ञानिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना, तथा
- देश के विकास हेतु युवा स्नातकों को विज्ञान एवं मूलभूत तकनीकी कार्यों के लिए तैयार करना।
आरंभिक वर्षों में विश्वविद्यालयों ने ज्ञान के प्रचार और शिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किंतु स्वतंत्र अनुसंधान और, विशेषकर विज्ञान में, मौलिक ज्ञान सृजन के लिए पहले 75 वर्षों तक सीमित प्रयास किए गए। इसका प्रभाव तकनीकी क्षेत्र पर भी पड़ा, जिसके कारण देश विज्ञान और तकनीकी प्रगति में अन्य राष्ट्रों पर निर्भर रहा।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद योजनाबद्ध विकास प्रारंभ हुआ, फलस्वरूप वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता स्पष्ट रूप से अनुभव की गई। प्रो. एम. आर. जयकर, प्रो. एस. पी. आघारकर, डॉ. डी. आर. गाडगिल तथा पुणे के अन्य शिक्षाविदों ने विज्ञान शिक्षण को उच्च स्तर पर ले जाने और अनुसंधान को बढ़ावा देने के प्रयास प्रारंभ किए।
महाराष्ट्र विज्ञानवर्धिनी (एमएसीएस) एवं अनुसंधान संस्थान की स्थापना:
पुणे में एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जिसमें वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रमुख स्थान दिया जाना था।
इस संदर्भ में भारतीय विधि समाज ने महत्वपूर्ण पहल की। 17 अक्टूबर 1944 को पुणे विधि महाविद्यालय के प्राचार्य जे. आर. घारपुरे की पहल पर प्रसिद्ध शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, कृषिविज्ञानियों एवं उद्योगपतियों की बैठक आयोजित की गई। बैठक में शुद्ध एवं अनुप्रयुक्त विज्ञान अनुसंधान संस्थान की स्थापना हेतु रूपरेखा तैयार करने के लिए एक समिति बनाई गई। इस समिति में प्रमुख रूप से डॉ. एम. आर. जयकर (अध्यक्ष), प्राचार्य जे. आर. घारपुरे, श्री एन. सी. केलकर, डॉ. आर. एच. भांडारकर, महामहोपाध्याय डी. वी. पोतदार तथा अन्य विद्वान सम्मिलित थे।
वर्ष 1945-46 के दौरान समिति ने कई बैठकें आयोजित कीं और अंततः भारतीय विधि समाज के सहयोग से पुणे विधि महाविद्यालय भवन में विज्ञान अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई। 5 अक्टूबर 1946 को महाराष्ट्र विज्ञानवर्धिनी की विधिवत स्थापना हुई, जिसके मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे:
(अ) विज्ञान के विकास एवं राष्ट्रीय हित के लिए उसका अनुप्रयोग;
(ब) वैज्ञानिक अनुसंधान हेतु संस्थान की स्थापना;
(क) विज्ञान ग्रंथालय का निर्माण;
(ड़) व्याख्यान, प्रकाशन, प्रदर्शन एवं प्रदर्शनियों के माध्यम से विज्ञान का प्रचार।
संस्था का संविधान तैयार कर 1 अक्टूबर 1946 को धर्मार्थ सोसायटी अधिनियम के तहत पंजीकृत किया गया। प्रारंभिक चरण में निजी अनुदानों एवं सदस्यता शुल्क से वित्तीय व्यवस्था की गई। उस समय सरकारी वित्तीय सहायता प्राप्त करना कठिन था, अतः वैज्ञानिकों ने निःस्वार्थ भाव से कार्य करने का निश्चय किया। संस्था के प्रशासन के लिए परिषद एवं कार्यकारी समिति बनाई गई, और प्रो. एस. पी. आघारकर को संस्थान का प्रथम संस्थापक निदेशक नियुक्त किया गया। उन्होंने वैज्ञानिकों का एक समर्पित समूह बनाया, जिन्होंने स्वैच्छिक रूप से कार्य करना प्रारंभ किया।
मान्यता एवं विश्वविद्यालय से संबद्धता:
वर्ष 1948 में पुणे विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। पुणे विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 35 के तहत एमएसीएस अनुसंधान संस्थान को स्नातकोत्तर शोध कार्य के लिए मान्यता प्राप्त हुई। 1952 में इसे बॉम्बे सार्वजनिक न्यास अधिनियम, 1950 के तहत पंजीकृत किया गया। वर्ष 1956 में तत्कालीन बॉम्बे सरकार ने इसे प्रमुख अनुसंधान एवं सांस्कृतिक संस्थानों की सूची में शामिल किया। संस्थान ने स्नातकोत्तर अनुसंधान कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे देशभर से शोध छात्र आकर्षित हुए।
अध्ययन के प्रमुख विषय: वनस्पति विज्ञान, साइटोजेनेटिक्स, पादप प्रजनन, कीट विज्ञान, प्राणीविज्ञान, कवक विज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, जैव रसायन एवं कृषि रसायन विज्ञान।
1948 में पुणे विश्वविद्यालय ने एमएसीएस से विश्वविद्यालय वनस्पति विज्ञान विभाग की स्थापना में सहायता के लिए संपर्क किया। तदनुसार, एमएसीएस के प्रोफेसरों ने वनस्पति विज्ञान, प्राणीविज्ञान एवं भूविज्ञान में एम. एससी. पाठ्यक्रमों के शिक्षण हेतु व्याख्यान योजना में भाग लिया। यह व्यवस्था अब भी कुछ विषयों में बनी हुई है।
1948 में एमएसीएस एकमात्र संस्थान था, जो पुणे विश्वविद्यालय के अंतर्गत सूक्ष्म जीव विज्ञान (माइक्रोबायोलॉजी) में एम. एससी. एवं पीएच.डी. उपाधियों हेतु स्नातकोत्तर अनुसंधान की सुविधाएँ प्रदान करता था। इसी मान्यता के तहत जून 1971 में एमएसीएस द्वारा सूक्ष्म जीव विज्ञान शिक्षण के लिए स्नातकोत्तर केंद्र स्थापित किया गया।
राज्य सरकार के 1968 के कृषि विश्वविद्यालय अधिनियम के तहत, राज्य कृषि विश्वविद्यालय – महात्मा फुले कृषि विद्यापीठ ने भी एमएसीएस को कृषि एवं संबंधित विषयों में अनुसंधान के लिए स्नातकोत्तर केंद्र के रूप में मान्यता प्रदान की।
यह स्नातकोत्तर अनुसंधान केंद्र; कृषि रसायन विज्ञान, मृदा विज्ञान, कीट विज्ञान (एंटोमोलॉजी), कवक विज्ञान (माइकोलॉजी), जीवाणु विज्ञान (बैक्टीरियोलॉजी), पादप रोग विज्ञान (प्लान्ट पैथोलॉजी), कृषि सूक्ष्म जीव विज्ञान (एग्री माइक्रोबायोलॉजी), कृषि वनस्पति विज्ञान, आनुवंशिकी और पादप प्रजनन में एम. एससी. एवं पीएच.डी. उपाधियों हेतु अनुसंधान कार्य करता है।
यह उल्लेखनीय है कि एमएसीएस को पुणे विश्वविद्यालय से केवल सांकेतिक अनुदान मिलता है और किसी भी कृषि विश्वविद्यालय से कोई अनुदान प्राप्त नहीं होता है।
एमएसीएस के अनुसंधान कार्यों में व्यापक विषयों को शामिल किया गया है एवं इसकी उपलब्धियों और प्रकाशनों की एक विस्तृत सूची संकलित की गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने इसे आम और केले जैसी दो महत्वपूर्ण बागवानी फसलों पर अनुसंधान योजनाएँ सौंपी। इसके पश्चात इसे राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर), भारतीय केंद्रीय नारियल समिति, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इत्यादि संस्थानों से भी अनुदान, छात्रवृत्ति एवं अनुसंधान योजनाएँ प्राप्त हुईं। संस्थान के कार्यों का विस्तृत विवरण पिछले 25 वर्षों की प्रकाशनों की सूची से प्राप्त किया जा सकता है।
संस्थान के लिए चुनौतीपूर्ण समय:
संस्थान की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था एवं सभी प्राध्यापकों एवं अनुसंधान मार्गदर्शकों को पूर्णतः मानद रूप से कार्य करना पड़ रहा था। इसके बावजूद, उन्होंने अनुसंधान के विकास में अत्यंत सक्रियता से कार्य जारी रखा।
इस दौरान, संस्थापक निदेशक प्रो. एस. पी. आघारकर का स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया। 11-12-1958 को उनका 75वाँ जन्मदिवस गरिमामय रूप से मनाया गया, परंतु स्वास्थ्य अधिक बिगड़ने के कारण 2-9-1960 को उनका निधन हो गया।
संस्थान के अस्तित्व पर संकट आ गया। किंतु कार्यकारी समिति के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. सर रघुनाथ परांजपे के कुशल मार्गदर्शन के कारण संस्था को सुदृढ़ आधार मिला एवं कार्य सुचारू रूप से चलता रहा। 17-8-1960 को प्रो. एस. पी. आघारकर के उत्तराधिकारी के रूप में डॉ. जी. बी. देओडीकर निदेशक निर्वाचित हुए। प्रो. एन. नारायण एवं प्रो. एम. एन. कामत, जो वरिष्ठ प्राध्यापक थे, उनके सहयोग से एमएसीएस के कार्यों की निरंतरता सुनिश्चित हुई।
इसी बीच, भारतीय विधि समाज ने अपनी आवश्यकताओं के कारण विधि महाविद्यालय भवन के भूमिगत हॉल का उपयोग संस्थान के कार्यालय, ग्रंथालय एवं प्रयोगशालाओं के लिए जारी रखना संभव नहीं पाया। इस स्थिति में “भारतीय सेवा समाज” एवं “गोखले राजनीति एवं अर्थशास्त्र संस्थान” ने सहायता प्रदान की।
संस्थान के लिए नया केंद्र:
अन्य संस्थानों द्वारा दी गई अस्थायी सुविधाओं में अनिश्चित काल तक कार्य करना कठिन था। अनुसंधान गतिविधियाँ अत्यंत बढ़ चुकी थीं, जिससे स्वयं का भवन होना आवश्यक हो गया। इस पर कार्यकारी समिति ने महाराष्ट्र सरकार से सहायता का अनुरोध किया।
इस कठिन समय में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री य. बी. चव्हाण एवं तत्कालीन शिक्षामंत्री श्री शांतिलाल शाह, जिन्होंने एमएसीएस के कार्य एवं चुनौतियों को सराहा, सहायतार्थ आगे आए। महाराष्ट्र सरकार ने संस्थान को लगभग 5 एकड़ भूमि निःशुल्क प्रदान की। यह भूमि शैक्षणिक संस्थानों, जैसे भांडारकर प्राच्य अनुसंधान संस्थान, विधि महाविद्यालय, वाणिज्य महाविद्यालय एवं गोखले राजनीति एवं अर्थशास्त्र संस्थान के मध्य, विधि महाविद्यालय मार्ग पर स्थित है, जिसे अब जी. जी. आघारकर मार्ग, पुणे-411004 के नाम से जाना जाता है।
इसने एमएसीएस को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर प्रदान किया। इसके पश्चात, भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय से वित्तीय सहायता हेतु अनुरोध किया गया। तत्कालीन शिक्षा मंत्री प्रो. हुमायूँ कबीर ने इस अनुरोध को स्वीकार कर श्री एम. यू. राजाराम एवं श्री एच. के. एल. चड्ढा, जो वरिष्ठ सचिव थे, को संस्थान की तात्कालिक आवश्यकताओं एवं समस्याओं की समीक्षा कर प्रतिवेदन प्रस्तुत करने हेतु नियुक्त किया। उन्होंने एमएसीएस अनुसंधान संस्थान में मानद रूप से कार्यरत वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे अनुसंधान कार्य को सराहा और संस्थान की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु उपयुक्त अनुशंसाएँ कीं।
इस अनुक्रम में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा तृतीय पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत संस्थान को ₹ 6 लाख की अनुदान राशि स्वीकृत की गई, जिससे नए भवन के निर्माण, रखरखाव एवं विकास पर व्यय किया गया। महाराष्ट्र सरकार द्वारा आवंटित भूमि पर भवन निर्माण परियोजना आरंभ की गई और शीघ्र ही पूर्ण कर ली गई। भवन का कुल क्षेत्रफल 20,137 वर्ग फीट है, जिसमें एक भूतल कक्ष एवं 3 मंजिलें हैं। इसके निर्माण पर ₹ 3.65 लाख व्यय हुए। यह भवन 6 प्रयोगशालाओं, कार्यालय एवं ग्रंथालय हेतु समुचित स्थान प्रदान करता है, जिन्हें जून 1966 में गोखले राजनीति एवं अर्थशास्त्र संस्थान से नए भवन में स्थानांतरित किया गया।
1946-66 के दौरान भारतीय विधि समाज एवं 1961-66 के दौरान सेवा समिति द्वारा प्रदत्त निःशुल्क आवासीय सुविधा को कृतज्ञतापूर्वक संबंधित संस्थाओं को लौटाया गया। भारतीय विधि समाज ने एमएसीएस को भूतल कक्ष के प्रवेश द्वार पर एक संगमरमर पट्टिका स्थापित करने की अनुमति दी, जहाँ पूर्व में निःशुल्क आवास उपलब्ध कराया गया था। उस पर निम्नलिखित पाठ अंकित किया गया:
“एमएसीएस भारतीय विधि समाज एवं दिवंगत प्रधानाचार्य श्री जे. आर. घारपुरे के प्रति उनकी सुविधाओं एवं 1946-66 के दौरान संस्थान की प्रयोगशालाओं हेतु प्रदत्त निःशुल्क आवासीय सुविधा के लिए कृतज्ञता व्यक्त करता है।”
तब से भारत सरकार द्वारा संस्थान को नियमित रूप से अनुदान दिया जा रहा है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), भारत सरकार ने एमएसीएस (अब एआरआई) को भारतीय विज्ञान उन्नति संघ, कलकत्ता, बोस संस्थान, कलकत्ता एवं बीरबल साहनी संस्थान, लखनऊ जैसे स्वायत्त अनुसंधान संस्थानों की स्थायी सूची में सम्मिलित किया।











